
बिजली क्षेत्र के निजीकरण का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। सरकारी बिजली कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने की नीति का व्यापक विरोध हो रहा है। विरोध करने वालों का कहना है कि यह न केवल कर्मचारियों के अधिकारों का हनन है, बल्कि इससे अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित नौकरियों पर भी खतरा मंडरा रहा है।
सरकारी संस्थानों में आरक्षण व्यवस्था सामाजिक न्याय की रीढ़ मानी जाती है। जब इन संस्थानों का निजीकरण किया जाता है, तो यह आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर सीधा प्रहार होता है। निजी कंपनियां आरक्षण नियमों का पालन नहीं करतीं, जिससे हाशिये पर खड़े समुदायों के लिए अवसर सीमित हो जाते हैं।
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कई राज्यों में बिजलीकर्मियों और उनके संगठनों ने इस मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उनका तर्क है कि निजीकरण से केवल मुनाफे की सोच हावी होगी, जिससे सेवा की गुणवत्ता, रोजगार सुरक्षा और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना खत्म हो जाएगी।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सरकार ने सामाजिक संतुलन और संविधान की भावना को बनाए रखना है, तो ऐसे क्षेत्रों का निजीकरण करते समय आरक्षण और सामाजिक प्रतिनिधित्व जैसी संवेदनशील बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
निजीकरण की दौड़ में यदि आरक्षण जैसी व्यवस्था को अनदेखा किया गया, तो यह सिर्फ रोजगार का नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का भी गंभीर संकट बन सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार इस विषय पर जनभावनाओं और सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता दे।