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480 साल पुरानी रामलीला में उमड़ी लाखों की भीड़, काशी का राज परिवार होता है शामिल, पीएम मोदी बोले- इस परंपरा पर गर्व है

वाराणसी: अद्भुत, अलौकिक और परंपराओं को संजोकर रखने वाली वह अद्भुत नगरी काशी जहां आज भी सैकड़ों साल पुरानी परंपराओं का निर्वहन धूमधाम के साथ किया जाता है. ऐसी ही एक 480 साल पुरानी परंपरा वाराणसी में आज एक बार फिर से निभाई गई. 16वीं शताब्दी में शुरू हुई इस अद्भुत परंपरा का साक्षी बनने के लिए लाखों की भीड़ बनारस के मैदान में जुटी. इस मैदान को नाटी इमली भरत मिलाप मैदान के नाम से जाना जाता है.

लगभग 480 वर्ष पूर्व गोस्वामी तुलसीदास जी के मित्र मेघ भगत ने इस रामलीला की शुरुआत की थी. प्रभु श्रीराम के स्वप्न में दर्शन के बाद हर वर्ष इस लीला का आयोजन करने का आदेश उन्हें मिला था. एक दिन भरत मिलाप के समय प्रभु श्रीराम के स्वयं उपस्थित होने का भी उन्हें आशीर्वाद मिला था. इसकी वजह से आज भी यह लीला गोधूलि बेला में सदियों से होती चली आ रही है. इसका साक्षी बनने के लिए एक तरफ जहां आम लोग तो दूसरी तरफ काशी का राज परिवार भी मौजूद रहता है.

भरत मिलाप देखने के लिए उमड़ती है लाखों की भीड़

काशी के नाटी इमली भरत मिलाप का मेला काशी के लक्खा मेले में शामिल है. यहां आयोजित होने वाले भरत मिलाप को देखने के लिए हर साल लाखों की संख्या में लोग जुड़ते हैं. इस अद्भुत लीला का गवाह एक तरफ जहां आम इंसान बनता है तो वहीं खुद भगवान भास्कर भी प्रभु श्रीराम और उनके भाइयों का दर्शन करने के लिए आते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि आज लगभग 480 सालों से यह लीला शाम 4:45 पर उसी वक्त पूरी होती है, जब ठीक सामने भगवान भास्कर पूरे प्रचंड वेग के साथ मौजूद होते हैं.

वाराणसी की रामलीला में राम भरत मिलाप

इस लीला के बारे में यह मान्यता है कि भगवान श्रीराम के जाने के बाद अयोध्यावासियों ने प्रभु श्रीराम की स्मृति के लिए रामलीला का संकल्प लेकर उसे मूर्त रूप दिया था. लेकिन, पुराण में यह वर्णन मिलता है कि रामलीला के प्रेरक गोस्वामी तुलसीदास ने उस वक्त अपने मित्र मेघ भगत के माध्यम से रामलीलाओं की प्रस्तुति मंचन की शुरुआत करवाई थी.

मेघ भगत ने काशी में शुरू की थी रामलीला

लीला संपन्न करवाने वाले आयोजकों और काशी के मूर्धन्य पद्मश्री पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि स्वप्न दर्शन के बाद प्रभु की प्रेरणा से मेघ भगत ने काशी में इस चित्रकूट रामलीला के नाम से रामलीला शुरू की थी. आज इस लीला का आयोजन चित्रकूट रामलीला समिति करती है. इसमें गुजराती परिवार के साथ ही यादव बंधुओं का विशेष योगदान होता है. काशी के अयोध्या भवन स्थित बड़ा गणेश मंदिर के पास इस भवन से ही इस लीला की शुरुआत हुई. यह लीला 7 किलोमीटर की परिधि में 22 दिनों तक चलती है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस लीला का मंथन एक बड़े से मैदान में होता है, जहां प्रभु श्रीराम दौड़ते हुए अपने भाई भरत और शत्रुघ्न के पास पहुंचते हैं. राम और भ्राता लक्ष्मण गले मिलते हैं और महज 2 सेकंड के इस मिलन का साक्षी बनने के लिए एक जन सैलाब उमड़ता है. लंबी यात्रा करके प्रभु श्रीराम यादव बंधुओं के कंधे पर कई किलो वजनी रथ पर सवार होकर यहां आते हैं.

वाराणसी में रामलीला को 480 वर्ष हो चुके

चित्रकूट रामलीला समिति के लोगों का कहना है कि रामलीला को लगभग 480 वर्ष हो चुके हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी के समक्ष मेघ भगत ने 16वीं शताब्दी में इस लीला को शुरू किया था. कहा जाता है कि मेघ भगत जी चित्रकूट में रामलीला देखने जाते थे. वह जब जाने में असमर्थ हो गए तो भगवान ने उन्हें सपने में दर्शन देकर काशी में ही लीला प्रारंभ करने के लिए कहा और उन्होंने यह भी बोला कि मैं भरत मिलाप के दिन तुम्हें दर्शन दूंगा और तुम वहीं मौजूद रहना.

सबसे बड़ी बात यह है कि यह लीला अपने आप में बिल्कुल अनूठी और अद्भुत है. क्योंकि, पूरे विश्व में इकलौती यही लीला है जो बाल्मीकि रामायण के आधार पर होती है. इसकी बड़ी वजह यह है कि मेघा भगत ने जब इस लीला की शुरुआत की थी, उस वक्त रामचरितमानस की रचना नहीं हुई थी. इसलिए बाल्मीकि रामायण के अनुसार, इस लीला का मंचन होता है. इसकी शुरुआत अयोध्या कांड के राज्याभिषेक से होती है और भरत मिलाप राजगद्दी तक यह लीला समाप्त हो जाती है.

काशी नरेश परिवार सहित रामलीला में होते हैं शामिल

आयोजकों का कहना है कि बहुत सी रामलीला लोगों ने देखी है. लेकिन, यह विश्व की इकलौती लीला है, जहां भगवान का स्वरूप विराजमान होता है और बाल्मीकि रामायण के पाठ के साथ स्वरूप की तरफ से एक भी डायलॉग नहीं बोला जाता है. वर्तमान में कुंवर अनंत नारायण सिंह जो काशी नरेश परिवार से हैं, वह इस लीला में अपने परिवार के साथ शामिल होने पहुंचते हैं.

हाथियों का झुंड राज परिवार के लोगों को लेकर आज भी इस लीला में पहुंचा. यहां कुंवर अनंत नारायण सिंह ने तुलसी की माला लेकर माथे से लगाई और उपहार स्वरूप अपने पुरखों के वक्त दी जाने वाली सोने की गिन्नी देकर इस परंपरा का निर्वहन भी किया. काशी नरेश के आगमन के साथ ही हर-हर महादेव और जय श्रीराम के जय घोष से पूरा क्षेत्र गुंजायमान रहा.

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