” यूँ ही नहीं जहाँ में चर्चा हुसैन का
कुछ देख के हुआ था ज़माना हुसैन का ”
” इतिहास गवाह है कि कर्बला की विश्व प्रसिद्ध लड़ाई अपने अधिकार या ज़मीनी क्षेत्रफल बढ़ाने के लिये नहीं लड़ी गई थी बल्कि मानवता के लिये लड़ी ग।ई थी। इराक के कर्बला में छिड़ी इस जंग में हज़रत हुसैन 72 साथियों वाली सेना का यज़ीद की बड़ी व विशाल सेना के सामने पराजित होना तय था लेकिन ह. हुसैन को ज़ालिम व तानाशाह यज़ीद के सामने समर्पण करना कत्तई गवारा न था। ”
सैयद फसीउल्लाह निज़ामी ‘रुमी’
भटनी-देवरिया
इस्लाम धर्म का पहला महीना मुहर्रम है और जब मुहर्रम का चाँद हो जाता है तो इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने की शुरुआत हो चुकी होती है इस तरह से कह सकते हैं कि मुहर्रम हिजरी वर्ष का पहला महीना होता है। मुहर्रम का महीना ऐतिहासिक लड़ाई कर्बला की जंग के लिये जाना है जो कि इराक़ के क़र्बला के मैदान में ज़ालिम यज़ीद की विशाल और ह. हुसैन के 72 सैनिकों के साथ हुई थी। हमारे पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद स.अ. व. ने इस महीने को अल्लाह का महीने का दर्ज़ा दिया है और यह महीना खुशी का नहीं बल्कि ग़म का है क्योंकि इस लड़ाई में ह. हुसैन शहीद हो गए थे लेकिन ज़ालिम यज़ीद के सामने झुके नहीं थे। विश्व प्रसिद्ध कर्बला की जंग इसी मोहर्रम की 10 तारीख को हुई थी। क़र्बला की यह जंग हज़रत मुहम्मद स.अ.व. के नवासे (नाती) हुसैन व यज़ीद के की सेना मध्य हुई थी। हज़रत हुसैन के लश्कर में 72 बहादुर लड़ाके थे जबकि ज़ालिम यज़ीद की सेना काफी बड़ी थी।
इस दिन क़र्बला के प्रतीक के रूप में ताज़िया बनाकर तय मार्ग से इमामबाड़ा ले जाकर दफ़न कर दी जाती है। इतिहास गवाह है कि कर्बला की विश्व प्रसिद्ध लड़ाई लड़ाई अपने अधिकार या ज़मीनी क्षेत्रफल बढ़ाने के लिये नहीं लड़ी गई थी बल्कि मानवता के लिये लड़ी ग।ई थी। इराक के कर्बला में छिड़ी इस जंग में हज़रत हुसैन 72 साथियों वाली सेना का यज़ीद की बड़ी व विशाल सेना के सामने पराजित होना तय था लेकिन ह. हुसैन को ज़ालिम व तानाशाह यज़ीद के सामने समर्पण करना कत्तई गवारा न था इसलिये उन्होंने जंग को पूरी न्यायप्रियता व हिम्मत के साथ लड़ना ही श्रेयकर समझा। इस्लाम धर्म के पवित्र ग्रन्थ कुरआन की एक आयत में जिन चार मुक़द्दस (बेहतर) महीनों का वर्णन है उसी में से एक मोहर्रम का महीना भी है।
मोहर्रम का महीना ग़म का महीना है और सारे लोग ग़म में डूब जाते हैं। इस इस दौरान रोज़ा (निर्जल उपवास) रखने की ख़ास अहमियत है। इस बारे में कहा गया है कि मोहर्रम के एक रोज़े रखने से 30 रोज़ों के बराबर सवाब मिलता है। मुहर्रम की 9 तारीख़ को की गई इबादतों का भी बहुत ही सवाब बताया गया है। मोहर्रम महीने की 10 वीं तारीख़ काफ़ी खास होती है क्योंकि कर्बला की जंग में हज़रत हुसैन मोहर्रम की दसवीं तारीख़ को ही न्यायप्रियता के साथ मानवता के लिये जाम-ए-शहादत पीकर शहीद हो गए थे। मोहर्रम की 10 तारीख़ इस्लामी तारीखों में बहुत ही मायने रखती है क्योंकि अल्लाह ने भी इस दिन बहुत से अम्बियायों की मदद की थी। इस्लामिक इतिहास में कर्बला की लड़ाई अहंकारियों पर स्वाभिमानियों की तथा झूठ पर सच्चाई की जीत थी।
कर्बला की जंग का इतिहास कुछ इस तरह से है कि इराक में यज़ीद नाम के बादशाह की हुकुमत थी जो कि बड़ा अत्याचारी व अहंकारी के साथ साथ ज़ालिम भी था। यज़ीद अपने आप को ख़ुदा समझने की भूल करता था और उसने हज़रत मोहम्मद स.अ. व. के नवासे (नाती) हज़रत हुसैन से कहा कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर लें पर ईमाम हुसैन ने उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। यज़ीद के ज़ुल्म से परेशान वहां के लोगों ने इमाम हुसैन को खत भी लिखा कि वे कूफ़ा आएं व यज़ीद के ज़ुल्म से छुटकारा दिलाएं। ख़त के ज़रिए यज़ीद के ज़ुल्म से पीड़ित लोगों का आमंत्रण पाकर ईमाम हुसैन अपने 72 साथियों के लश्कर के साथ वहां पहुंच गए और अपने लश्कर का खेमा डाल दिया। ईमाम हुसैन हक़ की लड़ाई लड़ने के लिये हिम्मत व ईमान के साथ अपने 72 साथियों के साथ खड़े हो गए और उन्हें यज़ीद की विशाल सेना का कोई डर नहीं हुआ क्योंकि वह जानते थे कि यह लड़ाई अगर होगी तो मानवता व न्याय के लिये होगी।
यज़ीद ने पहले ह. हुसैन को बहुत सा प्रलोभन दिया पर मानवता की लड़ाई में इन्होंने कोई समझौता स्वीकार करने से इनकार कर दिया। अपनी दाल नहीं गलते देख यज़ीद ने फिर इमाम हुसैन के लश्कर पर ज़ुल्म ढाना शुरू कर दिया। पानी पर पहरा लगा मासूमों को तड़पाया और इनके टेंट को आग के हवाले कर दिया। मोहर्रम की 10 वीं तारीख को (61 हिज़री) यज़ीद ने ह. हुसैन के खेमे पर उस वक्त हमला कर दिया जब वे नमाज़ में मशगूल थे। उसकी सेना ने 6 माह के बच्चे से लेकर बड़ों व औरतों तक पर जुल्म ढाये। हुसैन के छोटे मासूम बेटे अली असगर ने प्यास व भूख से तड़पकर अपने पिता की गोद मे दम तोड़ दिया।इतिहास गवाह है कि इस मानवता की जंग में एक तरफ ह.हुसैन की सच्चाई,इंसानियत,सज्जनता व इंसाफ़ था तो दूसरी तरफ यज़ीद का अहंकार,झूठ व ज़ुल्म था।मानवता की जंग में भले ही हज़रत हुसैन परास्त हो गए हों पर सच्चाई यही है कि सच के आगे झूठ पराजित हुआ। यह लड़ाई न तो अधिकार हेतु और न ही ज़मीनी क्षेत्रफल को बढ़ाने के लिये लड़ी गई बल्कि यह जंग मानवता के हुई थी जिसमें ह. हुसैन हारकर भी जीते हुए थे।