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“मां” की संस्कृति को बचाने की जरूरत

  • बच्चों को पढ़ाई से पहले संस्कृति की दें शिक्षा

स्वाती सिंह


बात 1983 की है। जब मैं छोटी थी, मुहल्ले में एक बुढ़ी मां रहा करती थी। उनके पुत्र नहीं थे। हमारी मां बताती थीं कि उनके पति करीब चार साल पहले इस दुनिया से गुजर चुके हैं। अब वे अकेले ही जीवन-यापन को मजबूर थीं। विधवा होने के कारण दूसरों के घर जाने से भी कतराती थीं। हमारी मां खाना बनाकर हम लोगों को पकड़ाती और हम लोग उन्हें देने के लिए जाते। वे घंटों बैठाकर कहानियां सुनाती। बहुत ही आनंद था। उनके यहां अक्सर बच्चे जाया करते थे। जब भी हम जायें। दो-तीन बच्चे उनके पास रहा करते थे। शायद उन्हें कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ। कोई सरकारी सहायता की जरूरत नहीं पड़ी। वे पूरे मुहल्ले के बच्चों की दादी मां थीं।

जमाना बदलता गया। आज वृद्धा आश्रमों के बारे में सोचती हूं, जाकर वहां देखती हूं तो ऐसा लगता है बदलती अर्थव्यवस्था ने हमारी संस्कृति को बदल दी। आज ऐसी स्थितियां आ गयीं, लड़का बड़े पद पर है और बुजूर्ग वृद्धा आश्रम में। आखिर जिस उम्र में अपनों के सहारा की जरूरत होती है, जिसके लिए बच्चों को मां-बाप पालपोषकर बड़ा करते हैं। वहीं बुढ़ापे में लाठी का सहारा न दे, फिर ममत्व कैसे जिंदा रह सकता है।

हमारे धर्मग्रंथ मां के बखान करते थकते नहीं हैं। हर जगह मां का बखान मिलता है। उसके गुणगान किये जाते हैं, लेकिन वह मां अपने बुढ़ापे में सरकारी सहायता पर आश्रित हो जाय, इसका अर्थ है कि हमारी संस्कृति का विलोप हो रहा है। हमें उस संस्कृति, उस भावना को जागृत करने की जरूरत है। ऐसे समय में हमें बच्चों को शिक्षा के साथ संस्कार, अपने धर्मग्रंथ को पढ़ाने की जरूरत है। हमें यह बताने की जरूरत है कि मां कहने मात्र से प्रभु श्रीराम ने राजगद्दी ठुकराकर वनगमन कर गये थे।

हमारे अथर्ववेद कहा गया है कि मां ममता से सराबोर होती है और यदि ममता जैसे महान गुण को निकाल दिया जाय तो संसार की गति ही शांत हो जाएगी। महर्षि मनु ने कहा है “दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है। सौ आचार्यों के बराबर एक पिता और एक हजार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण मां होती है।” ऐसी महान संस्कृति में आज मां को याद करने के लिए किसी दिवस की जरूरत पड़ रही है। आज हम ऐसी मां से दूर होते जा रहे हैं, जिसने अपना पेट काटकर हमें पढ़ाया, खुद भूखी रही लेकिन हमारे भोजन की व्यवस्था की। अभी गनीमत है कि मां को सरकार के भरोसे छोड़ने वालों की संख्या नगण्य है, लेकिन यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। जो खतरे की घंटी है। इसे रोकने की जरूरत है।

मदर्स डे को पहले जान लें। मदर्स डे की स्थापना अन्ना जार्विस ने की थी, जिन्होंने 1907 में माताओं और मातृत्व के सम्मान में मदर्स डे मनाने का विचार दिया था। राष्ट्रीय स्तर पर इस दिन को 1914 में मान्यता मिली थी। ऐसा नहीं कि मैं किसी संस्कृति की विरोधी हूं। हर संस्कृति वहां के वातावरण के हिसाब से बनती है। वहां की स्थिति-परिस्थिति के अनुसार उसमें बदलाव भी होता रहता है, लेकिन वहीं संस्कृति जब दूसरों को देखकर खुद में बदलाव शुरू कर देती है तो वहां विकृति आती है। अमेरिका का ही ले लें। वहां लोग इहलोक से विदा होने तक काम को तरजीह देते हैं। सरकार भी उनके बुजुर्गों की देखरेख करने का जिम्मा उठाती है, जिससे कामकाजी लोगों पर उसका बोझ महसूस न हो। वहां के हिसाब से जो बच्चे मां-बाप से दूर रहते हैं। इसी बहाने मां से मिलने और अपना प्यार जताने पहुंचते हैं।

हमारे यहां ऐसी परिस्थिति नहीं है। यहां पर अधिकांश बच्चे समयाभाव के कारण नहीं, मां या पिता से युवा अवस्था में दूराव की भावना के कारण उनसे दूर रहने का फैसला करते हैं। विवाह होने के बाद मां-बाप के साथ ही रहना अपनी परतंत्रता समझने लगते हैं। वह चाहते हैं कि एक नई संस्कृति में खुले आसमान में खुद की उड़ान भरें। उनके कामों में कोई रोक-टोक करने वाला न हो। यह परंपरा गलत है। आज इस संस्कृति को रोकने की जरूरत है।

कहने का अर्थ है कि मदर्स-डे साल में एक बार नहीं, हर दिन होना चाहिए। मैं यह कहना चाहती हूं कि मदर्स-डे और हेलो पापा के साथ ही माई का भाव भी बच्चों में पैदा करने की जरूरत है। हमें ओल्ड-एज-होम की संस्कृति से बचने की जरूरत है। इस अर्थ युग में जिस शिक्षा पद्धति पर हम बच्चों को चलाना चाहते है। कम से कम वह तो यही कहता है कि भावना शब्द ही विलुप्त की ओर अग्रसर हो रहा हे। अर्थ युग में भले ही हम मां से दूर हो गये हों लेकिन बात तो कर सकते हैं।
आज जरूरत है आधुनिकता के साथ ही ऋग्वेद को याद करने की, जिसमें ‘माँ’ की महिमा का यशोगान कुछ इस प्रकार से किया गया है, ‘हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ ! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम-परायण बनाओं। हमें यश और अद्धत ऐश्वर्य प्रदान करो।’ अंत में तैतरीय उपनिषद में ‘माँ’ के बारे में लिखे गये ‘मातृ देवो भवः।’ को बच्चों को याद कराने की जरूरत है।

श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘माताओं की सेवा से मिला आशिष, सात जन्मों के कष्टों व पापों को भी दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा का कवच का काम करती है।’ इसके साथ ही श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ‘माँ’ बच्चे की प्रथम गुरु होती है।

वात्सल्य, माया, अपनापन, स्नेह, आकाश के समान विशाल मन, सागर समान अंत:करण की संगम मां की संस्कृति को बचाने की जरूरत है। जिस दिन इस संसार से “मां” का ममत्व मर गया, उस दिन से संसार की कल्पना व्यर्थ हो जाएगी। मनुष्य का मनुष्यत्व समाप्त हो जाएगा। इस अर्थ (पृथ्वी) पर अर्थ (धन) का महत्व खत्म हो जाएगा। अर्थ का महत्व तभी तक है, जब तक हम संस्कृति से जुड़े हुए हैं। संस्कृति की शुरूआत ही मां से होती है। जिस दिन मां का ममत्व खत्म हुआ, उस दिन से संस्कृति का विनाश हो जाएगा। मां ईश्वर की दी हुई सबसे अनुपम उपहार है। इसे हम सभी को मिलकर बचाना होगा। मां ही शक्ति है, यदि शक्ति विहीन हो गये तो फिर अर्थ स्वत: ही समाप्त हो जाता है। आखिर अर्थ (धन) भी तो लक्ष्मी अर्थात मां ही है। इसीलिए तो ‘चाणक्य नीति’ में कौटिल्य स्पष्ट रूप से कहते हैं कि, ‘माता के समान कोई देवता नहीं है। ‘माँ’ परम देवी होती है।’

(लेखिका- पूर्व मंत्री और भाजपा की वरिष्ठ नेत्री )

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