उत्तर प्रदेशलखनऊ

बदनाम पुलिस को सहानुभूति की जरूरत

अंशुमान सिंह

लखनऊ (आरएनएस)। बीते शुक्रवार को  जिस तरह पूरे भारत का अपहरण करने की कोसिस की गई उसकी मजम्मत होनी ही चाहिए। जब भी कहीं अप्रतिबंधित कृत्य होता हैं तो बजाय घटना की निंदा के विपक्ष व  लिबरल, पुलिस व इंटेलिजेंस इकाई पर आरोप लगाते दिख जाएंगे। झारखंड से आये बीडीओ जिसमे सिपाही को पत्थर लगा हैं वो अपने मातहत से और फ़ोर्स की मांग कर रहा हैं। अमुक सिपाही की गलती केवल इतनी थी कि वो अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा था। समाज का प्रत्येक धड़ा पुलिस से नाराज रहता हैं। सबको पुलिस से शिकायत हैं, विषम परिस्थितियों में काम करने को मजबूर पुलिस कर्मी    भी किसी की औलाद, भाई, बाप ही होता हैं।
गौरतलब है कि 42 डिग्री तापमान में चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक पुलिस इसी देश समाज का अंग हैं, कर्तव्य पालन के दौरान उसे लोगों की हिकारत का सामना करना पड़ता हैं। बिडम्बना ये हैं कि पत्थरबाज,
आतंकियों के बरक्स पुलिस का कोई मानव अधिकार नही है।किसी ने ठीक ही कहा हैं कि जैसी प्रजा होगी उसे वैसा राजा व पुलिस मिलेगी। इदारों की बात करें तो पुलिस को सबसे भ्रस्ट माना जाता हैं, पुलिस पर आज तक 2 करोड़ रिश्वत का मामला भी सामने नही आया। छोटे छोटे भ्रस्टाचार तो हो सकते है, कहने मतलब यह भी पुलिस उतनी गलत नही हैं जितना अन्य इदारे हैं। हर सुख दुख में साथ रहने वाली पुलिस से तो उम्मीद की जाती हैं कि वो अच्छा व्यवहार करें पर ऐसे में कैसे संभव है जब देश की जनता  हर पल कानून तोड़ने पर आमादा हैं ऐसे में पुलिस कैसे अच्छा व्यावहार करेगी। ज्यादातर राज्य ऐसे हैं जहां मानक के अनुरूप पुलिस बल नही हैं। किसी भी प्रदेश की पुलिस को बीआईपी सुरक्षा से लेकर तीज त्योहार भी अमन के साथ हो इसका भी प्रबंध करती हैं।

पुलिस बल काम होने से ड्यूटी के घंटो में बढ़ोतरी होती हैं नतीजतन तनाव होता हैं। अगर ईमानदारी से जांच की जाय तो भारत के अधिकतर पुलिसकर्मी ,किसी न किसी बीमारी से जूझ रहे हैं। समाज से खत्म हो चुकी संवेदना ने हमे केवल अपना भला ही सोचने की इजाजत दी हैं। टूटे समाज से पैदा हुए आत्मकेंद्रित एकाकी परिवारों को हम दो हमारे दो से फुरसत नही हैं। अब समाज का डर लोगों के दिमाग से निकल गया हैं। ऐसे में जो मामले पहले समाज मे ही निपट जाते थे उनके लिए अब पुलिस न्यायालय का सहारा लेना पड़ता हैं। हो सकता हैं कि पुलिस का स्याह पक्ष भी हो पर वो पुलिस के कर्तव्यों के आगे नगण्य ही हैं। अगर काल झारखंड, प्रयाग में पुलिस नही होती तो क्या होता।दुनिया मे कौन हैं जो पत्थर व गोली के सामने खड़ा होगा और खुद पर पत्थर व गोली चलाने वाले का खैर मकदम करेगा।

स्कॉटलैंड यार्ड के बाद भारत की ही कुछ राज्यों की पुलिस को आदर्श पुलिस होने का गौरव प्राप्त हैं।नजरिया सकारात्मक हो तो बुराई से भी अच्छाई हासिल की जा सकती हैं। बात अगर यूपी जैसे बड़े सूबे की करें जहां तमाम, मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर हैं सबकी सुरक्षा, अपराधियों की धर पकड़ से लेकर माफियाओं पर शिकंजा कसना टेढ़ी खीर ही हैं।अपराधियों के राजनीति में आने से  न केवल पुलिस प्रभावित बल्कि मनोबल का स्तर भी नीचे आया।अपराधी को पकड़ने से पहले ही नेता, पत्रकार, वकील  सबका दबाव पुलिस पर पड़ने लगता हैं जिससे पुलिस का इक़बाल खतरे में आता हैं।हालांकि भारत मे पुलिस सुधार लंबित प्रक्रिया हैं। हालांकि जिस तरह देश को अस्थिर करने की कोसिस की जा रही  उससे। तो यही प्रतीत होता हैं कि जितनी जल्दी हो सके पुलिस की कमी को पूरा किया जाए।अवसाद में जी रहे हमारे रक्षक आखिर कबतक सुधार की राह जोहेंगे।

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