जलवायु परिवर्तन के नुकसानों को झेल रहे विकासशील देशों को फंडिंग करने से विकसित देश मुकर रहे हैं। दरअसल विकसित देशों का कहना है कि मदद पाने वाले देशों की संख्या को कम करने की मांग कर रहे हैं। साथ ही विकसित देशों का कहना है कि मदद करने वाले देशों की संख्या को भी बढ़ाया जाए। विकसित देशों के इस रुख पर वैश्विक दक्षिणी देशों के विशेषज्ञों ने चिंता जाहिर की है।
विकसित देश फंडिंग देने में कर रहे आनाकानी
विशेषज्ञों ने इस बात पर जोर दिया है कि विकासशील देशों को दिसंबर में सऊदी अरब में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण के मुद्दे पर आयोजित होने वाले सम्मेलन COP28 में एकजुट होकर विकसित देशों के सामने अपनी मांग रखनी चाहिए। बता दें कि मिस्त्र के शर्म अल शेख शहर में आयोजित हुई COP27 की बैठक में एक हानि और क्षति निधि बनाने का फैसला हुआ था। इस निधि में विकसित देश योगदान देंगे और जलवायु परिवर्तन के नुकसानों का सामना कर रहे देशों को इस निधि से फंडिंग की जानी है। हालांकि बीते हफ्ते संयुक्त राष्ट्र में हानि और क्षति निधि के मुद्दे पर मंत्री स्तर की बैठक हुई, जिसमें इस मुद्दे पर भारी मतभेद सामने आए कि किस देश को फंडिंग मिलनी चाहिए और किन देशों को इस निधि में योगदान देना चाहिए।
विकसित देशों का तर्क- भारत, चीन भी करें योगदान
विकसित देशों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के सबसे ज्यादा नुकसान झेल रहे देश और छोटे और गरीब देशों को इस निधि से फंडिंग की जानी चाहिए। विकसित देश पाकिस्तान और लीबिया को भी इस लिस्ट में रखने के पक्ष में नहीं हैं, जबकि बीते दिनों इन दोनों देशों ने जलवायु परिवर्तन के चलते विनाशकारी बाढ़ का सामना किया और इससे हजारों लोगों की जान गई। विकसित देश सभी सक्षम देशों जैसे भारत और चीन को हानि और क्षति निधि में योगदान देने की भी मांग कर रहे हैं। वहीं विकासशील देशों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के नुकसान झेल रहे सभी विकासशील देशों को फंडिंग होनी चाहिए। विकासशील देशों का तर्क है कि ग्रीनहाउस गैसों में सबसे ज्यादा योगदान इतिहास में और वर्तमान में भी विकसित देश ही कर रहे हैं।
वैश्विक दक्षिण देशों के विशेषज्ञों ने विकसित देशों के रुख पर चिंता जाहिर की है और कहा है कि विकसित देश अपने वादों से मुकर रहे हैं और जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।