वीरांगना बिशनी देवी साह को स्वतंत्रता आंदोलन में जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाना जाता है। उनसे अंग्रेजी हुकूमत इस कदर खौफजदा हुई कि उन्हें दो बार जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया गया। जानिए कौन थी बिशनी देवी?
जंगे आजादी में अदम्य साहस और प्रतिरोध का जौहर दिखाने में उत्तराखंड की महिलाएं पहली पंक्ति में शुमार रही हैं। वीरांगना बिशनी देवी साह को स्वतंत्रता आंदोलन में जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाना जाता है। उनके क्रांतिकारी नेतृत्व से अंग्रेजी हुकूमत इस कदर खौफजदा हुई कि उन्हें दो बार जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया गया
25 अक्तूबर 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में तिरंगा फहराने पर उन्हें दिसंबर-1930 में गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में कठोर यातनाएं दी गईं। जेल से रिहा होने के बाद वह अल्मोड़ा में स्वदेशी के प्रचार-प्रसार में लग गईं। खादी के प्रचार के लिए उन्होंने चर्खा खरीदकर घर-घर जाकर महिलाओं को बांटना शुरू किया और महिला समूह बनाकर चर्खा चलाने का प्रशिक्षण दिया। दो फरवरी 1931 को जब बागेश्वर में महिलाओं ने स्वतंत्रता की मांग को लेकर जुलूस निकाला तो बिशनी देवी ने आर्थिक मदद भी की।
स्वतंत्रता आंदोलन में लगातार सक्रिय रहने के कारण बिशनी देवी को सात जुलाई 1933 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें नौ महीने की सजा के साथ 200 रुपये का जुर्माना भी लगाया गया जो उस समय के हिसाब से बड़ी राशि थी। जुर्माने की राशि अदा नहीं कर पाने पर उनकी कैद बढ़ाकर एक साल कर दी गई। हालांकि स्वास्थ्य खराब होने पर उन्हें जल्द रिहा कर दिया गया। 1934 में मकर संक्रांति पर जब बागेश्वर में उत्तरायणी मेला लगा तो अंग्रेज सरकार ने मेले में धारा-144 लगा दी। बिशनी देवी साह ने धारा-144 की परवाह ना करते हुए मेला स्थल पर खादी की प्रदर्शनी लगाई।
1934 में रानीखेत में हर गोविंद पंत की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस की बैठक में बिशनी देवी को कार्यकारिणी सदस्य कतौर पर निर्वाचित किया गया। अल्मोड़ा के कांग्रेस भवन में 23 जुलाई 1935 को उन्होंने तिरंगा फहराया। कुमाऊं में जनजागरण के लिए पहुंची विजय लक्ष्मी पंडित ने भी बिशनी देवी साह की स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका की प्रशंसा की थी। उन्होंने 26 जनवरी 1940 को अल्मोड़ा में एक बार फिर से झंडारोहण किया और 1940-41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भाग लिया।
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1942 के अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन में बिशनी देवी साह ने अल्मोड़ा में सक्रीयभागीदारी की। 15 अगस्त 1947 को जब देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ तो बिशनी देवी साह ने अल्मोड़ा में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के साथ निकाले गए विशाल जुलूस का नेतृत्व किया। उत्तराखंड के सरोकारों से जुड़े लेखक जगमोहन रौतेला ने बताया कि स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली बिशनी देवी को आजाद भारत में वह महत्व नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। जीवन के आखिरी दिनों में घोर आर्थिक संकट के बीच 1974 में उनका निधन हो गया।
जब महिलाओं ने अल्मोड़ा नगर पालिका में फहराया तिरंगा
अंग्रेजी हुकुमत में तिरंगा फहराना अपराध माना जाता था। उत्तराखंड में आजादी के परवानों ने 25 अक्टूबर 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निर्णय किया। इसमें बड़ी संख्या में महिलाओं भी शामिल थी। पुलिस ने उन्हें बलपूर्वक रोका। पुलिस लाठीचार्ज में मोहनलाल जोशी और शांति त्रिवेदी गंभीर रुप से घायल हो गए। इससे आंदोलनकारी और उग्र हो गए। बिशनी देवी साह, कुंती वर्मा, मंगला देवी, भगीरथी देवी, जीवंती देवी, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत, भक्ति देवी त्रिवेदी, रेवती देवी आदि महिलाओं ने जुलूस का नेतृत्व किया।
पुलिस के लाठीचार्ज की सूचना मिलने पर स्वतंत्रता सेनानी बद्रीदत्त पांडे और देवीदत्त पंत अनेक लोगों के साथ घटना स्थल पर पहुंचे। इससे आंदोलनकारी महिलाओं को बल मिला और वे नगर पालिका में झंडारोहण करने में सफल रहीं।
19 वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन में कूदीं
बिशनी देवी शाह का जन्म बागेश्वर में 12 अक्तूबर 1902 को हुआ था। कक्षा चार तक पढ़ाई करने के बाद 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया। 16 वर्ष की आयु में पति के देहांत के बाद उन्हें सामाजिक उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। उस दौर में कम आयु में पति की मृत्यु होने पर अनेक महिलाएं सन्यास धारण कर माई बनने को विवश होती थीं। बिशनी देवी ने एकाकी जीवन चुनने के बजाय आजादी की मशाल थाम ली। 19 वर्ष की उम्र से उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। वह कुमाऊंनी कवि गौर्दा से प्ररित थीं जिन्होंने छुआछूत और अंधविश्वास जैसे विषयों पर कविताएं लिखी और गीत गाए।