Rashtriya Swayamsevak Sangh: Golden journey of hundred years of service
Rashtriya Swayamsevak Sangh: Golden journey of hundred years of service

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः सेवा के सौ वर्षों की स्वर्णिम यात्रा

हृदयनारायण दीक्षित

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 100 बरस का होने जा रहा है। संघ संप्रति दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। दुनिया का कोई भी देश ऐसा स्वयंसेवी संगठन नहीं बना पाया। डॉ. हेडगेवार ने इसकी स्थापना विजयदशमी (सन 1925) के दिन की थी। तबसे अब तक हजारों झंझावात झेलते हुए संघ लगातार सक्रिय है। संघ की कार्य पद्धति विशिष्ट है, इसके बारे में कम लोग जानते होंगे। कई स्वयंभू विद्वान संघ को ब्रेनवाश कर देने वाला संगठन मानते हैं। कई इसे सांप्रदायिक भी कहते हैं। केवल कहते ही नहीं संघ का विरोध करने के लिए हिन्दू विरोधी तमाम घटनाओं में संघ की साजिश बताते हैं, लेकिन संघ अपने सेवा कार्यों में संलग्न रहता है। सो डॉ. हेडगेवार द्वारा रोपा गया बीज अब विराट वृक्ष बन गया है।

संघ और भाजपा के रिश्तों पर बहसें चलती हैं। तब भाजपा का नाम जनसंघ था। देश की राजनीति में तुष्टिकरण था। अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के दबाव में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारतीय स्वाधीनता की घोषणा (20-2-1947) की। मुस्लिम लीग की अलग मुल्क की मांग पर युद्ध जैसी आक्रामकता थी। कट्टरपंथी अलगाववाद को तुष्टिकरण का पुष्टाहार मिला। देश बंट गया। हजारों हिन्दू मारे गए। महात्मा गांधी की भी हत्या हुई। संघ पर प्रतिबंध लगा। पाकिस्तानी कबाइली हमला (1948) हुआ। तत्कालीन राजनैतिक दल व नेता राष्ट्रवाद से दूर थे। हिन्दुओं के मर्म से दूर थे। एक राष्ट्रवादी दल की आवश्यकता थी। श्री गुरुजी की प्रेरणा से भारतीय जनसंघ की स्थापना (1951) हुई। जम्मू कश्मीर के दो निशान, दो प्रधान, दो विधान का विरोध, गोवध निषेध और समान नागरिक कानून जैसे राष्ट्रवादी मुद्दे गरमाए। सरसंघचालक गुरु जी ने गोवध निषेध व हिन्दू श्रद्धा स्थान को नष्ट करने की प्रवृत्ति पर लिखते (1952) हुए कहा, ‘‘गाय अनादि काल से आराध्य है। समाज विजेता के उन्माद में पराजित जाति को अपमानित करते हुए श्रद्धा स्थानों को नष्ट करना, धन, मान लूटना, मानो विजय आनन्द लेना है।‘‘

तिब्बत पर चीनी कब्जा हुआ, गुरु जी ने इसे हृदय विदारक (18 मई 1959) बताया। भारत पर चीन का हमला 1962 में हुआ था। तत्कालीन सरसंघचालक ने दिल्ली में कहा था, ‘‘सेना के लोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए। उनके परिवारों की सहायता करनी चाहिए। जाति, भाषा और राजनीति सहित सभी मतभेदों को हृदय से हटाएं। हमारा समूचा राष्ट्र और उसके सामने खड़ा शत्रु, केवल इतना ही ध्यान में रखें।‘‘ संघ चीन युद्ध के दौरान सरकार के साथ था। राजनैतिक दलों व संघ के ध्येय व लक्ष्यों में भी अंतर है। संघ की दृष्टि में पृथ्वी माता है। भारत माता है। संघ के लोग इसी सेवा में निस्वार्थ भाव से जुटे हैं। संघ के स्वयंसेवकों ने स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लिया था।

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लेकिन राहुल गांधी ने संघ के सम्बंध में अपनी समझ में एक मजेदार टिप्पणी की है। उनकी इस टिप्पणी की खासी चर्चा है। उन्होंने कहा है कि, ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कुछ मतों व भाषाओं को कमतर आंकता है। राहुल गांधी की टिप्पणी निराधार है। राहुल गांधी ने कुछ समय पहले संघ को समझने का प्रयास किया था। उन्होंने कहा था कि संघ से सीधी लड़ाई लड़ने के लिए उपनिषद् और गीता पढ़ेंगे। आलोचना बुरी नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति और संगठन को आलोचना का अधिकार है। लेकिन संघ कार्य पारदर्शी है। कह सकते हैं कि संघ एक ओपन यूनिवर्सिटी है। राष्ट्र का सर्वांगीण विकास व अभ्युदय के लिए संघ के स्वयंसेवक सदा तत्पर रहते हैं। नासमझी में अनेक सुशिक्षित विद्वान भी संघ के आलोचक हैं। तुष्टिकरणवादी वोट बैंक के कारण संघ की निंदा करते हैं।

राष्ट्रीय स्तर के एक वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह से द्वितीय सरसंघचालक म. स. गोलवलकर की भेंट हुई थी। उनसे मिलने के बाद खुशवंत सिंह ने लिखा था, ‘‘कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको बिना समझे ही हम घृणा करते हैं। ऐसे लोगों की मेरी सूची में गुरु गोलवलकर प्रथम थे।‘‘ खुशवंत सिंह ने ‘आरएसएस एंड हिन्दू मिलिटरिज्म‘ के हवाले से कई सवाल पूछे। ईसाइयों के सम्बंध में पूछे गए सवाल के जवाब में गुरु जी ने कहा, ‘‘धर्मांतरित करने के तरीकों के अलावा हमारा उनसे कोई विरोध नहीं है।‘‘ मुसलमानों के बारे में कहा कि, ‘‘मुसलमानों को भारतीयता के प्रवाह में मिल जाना चाहिए।‘‘ ईरानी मूल के पत्रकार डॉ. जिलानी से कहा, ‘‘पाकिस्तान ने पाणिनि की 5000वीं जयंती मनाई है। पाणिनि पूर्वज हैं। भारत के मुसलमान पाणिनि, व्यास और वाल्मीकि आदि को महान पूर्वज क्यों नहीं मानते? भारतीय राष्ट्रवाद प्राचीन धारणा है। यहां राष्ट्र संस्कृति आधारित है। इस राष्ट्रवाद के स्रोत वैदिक वांगमय में हैं। ऋग्वेद, अथर्ववेद में राष्ट्र शब्द की आवृत्ति कई बार हुई है। स्वयंभू विद्वान स्वाधीनता संग्राम के दौरान विकसित राष्ट्रभाव को अलग मानते हैं और सनातन राष्ट्रवाद को कमतर। स्वाधीनता आंदोलन हर तरह से प्रत्येक भारतवासी को प्रिय है। स्वाधीनता आंदोलन के आदर्श व मूल्य आदर योग्य हैं।

दुर्भाग्य से भारत को आजादी मिलने के बाद नए सत्ताधीश राष्ट्रवाद से पृथक हो गए। बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा लिखी गई अंतरराष्ट्रीय ख्याति की कविता ‘वंदे मातरम‘ के एक हिस्से को संविधान सभा ने राष्ट्रगीत घोषित किया था। लेकिन स्वाधीनता के बाद अनेक पंथिक मजहबी संस्थाओं ने वंदे मातरम गाने से इनकार किया, लेकिन संघ के कार्यक्रमों में वंदे मातरम प्रशंसा पूर्वक गाया जाता है। आज भारत के कोने-कोने में वंदे मातरम का गान होता है। वंदे मातरम गाने से इनकार करने वाले संगठन अकड़ते रहे। संघ ने सबको साथ लेते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को सर्वोपरि बताया है। सांस्कृतिक प्रतीकों को सम्मान देने की परंपरा संघ ने यत्र तत्र सर्वत्र प्रसारित की। संघ की सांगठनिक क्षमता बड़ी है। उच्च शिक्षित युवा संघ कार्य को राष्ट्रीय दायित्व मानते हैं। वे उच्च शिक्षा से प्राप्त अवसरों की चिन्ता नहीं करते। वे घर परिवार छोड़कर संघ कार्य में जुटते हैं। वे संघ का अनुशासन मानते हैं और देश के लिए काम करते हैं। संघ राजनैतिक दल की तरह मेम्बरी नहीं कराता। संघ के पास सैकड़ों पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं। दुनिया का कोई भी देश ऐसे सुशिक्षित समर्पित कार्यकर्ताओं का स्वयंसेवी संगठन नहीं बना पाया।

आने वाली विजयादशमी के दिन संघ 100 बरस का हो जाएगा। संघ शाखा पर प्रार्थना में लक्ष्य सुस्पष्ट हैं- परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्-यहां राष्ट्र का परम वैभव ही संघ का लक्ष्य है। संघ के कार्यकर्ता सुबह उठते ही भारत भक्ति स्तोत्र पढ़ते हैं। इस स्तोत्र में अनेक महापुरुषों के मध्य डॉक्टर अम्बेडकर को भी प्रणाम किया गया है। जाति-पाति, पथ, मत और मजहब से भिन्न राष्ट्र की सर्वोपरिता संघ की मान्यता है। संघ कार्य देश के सनातन विचार प्रवाह का हिस्सा है। राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत कार्यकर्ताओं का निर्माण होता रहता है। संघ राष्ट्रवादी संस्कार देने के काम में संलग्न है। संघ के कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से काम करते हैं।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)