उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की गद्दी जाने की ताजा वजह राज्य के चार जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर नया गैरसैंण मंडल बनाना माना जा रहा है, लेकिन यह अकेली वजह नहीं है, जिसकी वजह से रावत को कुर्सी गंवानी पड़ी है। वह इससे पहले भी कई ऐसे निर्णय कर चुके हैं जिनकी वजह से भाजपा आलाकमान को उन्हें हटाने का फैसला करना पड़ा।
उत्तराखंड सांस्कृतिक और भाषाई तौर पर मुख्य रूप से गढ़वाल व कुमाऊं मंडलों में बंटा है। दोनों ही मंडलों में हमेशा से ही हर क्षेत्र में दबदबा कायम करने की होड़ रही है। उत्तर प्रदेश में रहते हुए भी इन मंडलों में ऐसी होड़ थी कि अगर एक मंडल को कुछ मिलता तो उसी के समान दूसरे मंडल को भी देना पड़ता था। इसीलिए जब रावत ने गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमांऊ के दो जिलों अल्मोड़ा और बागेश्वर को शामिल किया तो पूरे कुमाऊं में सियासी तूफान आ गया। इसे कुमांऊ की अस्मिता और पहचान पर हमला माना गया।
सरकार के इस फैसले के खिलाफ पूरे कुमाऊं के भाजपा नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष मोर्चा खोल दिया। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले त्रिवेंद्र के इस फैसले को उन्होंने आत्मघाती करार दिया। केंद्रीय नेतृत्व ने भी इसे गंभीर माना और त्रिवेंद्र को विधानसभा का सत्र बीच में ही समाप्त कर तत्काल ही केंद्रीय पर्यवेक्षक रमन सिंह और दुष्यंत गौतम के साथ बैठक करने को देहरादून तलब कर लिया। इस बैठक में विधायकों साथ बैठक करने के बाद रमन सिंह व गौतम ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया कि त्रिवेंद्र के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है और उन्हें बदलना जरूरी है।
असल में त्रिवेंद्र ने जब उत्तराखंड देवस्थानम् बोर्ड बनाकर केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री व यमनोत्री धाम को सरकार के अधीन कर दिया था तो इससे ब्राह्मण समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। यही नहीं भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी। हालांकि हाईकोर्ट में सरकार जीत गई थी, लेकिन स्वामी सुप्रीम कोर्ट चले गए और अभी मामले पर सुनवाई हो रही है। त्रिवेंद्र के इस फैसले से भाजपा आलाकमान भी खुश नहीं था। हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक संत समाज भी त्रिवेंद्र के इस फैसले के खिलाफ था।
इसके बाद त्रिवेंद्र सिंह ने आनन फानन में गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया। इस फैसले को उन्होंने पर्वतीय जनभावनाओं के अनुरूप बताया पर जनता ने इसे नकार दिया। अपने फैसले को ठीक ठहराने के लिए उन्होंने गैरसैंण में काफी काम भी कराया। विधानसभा की बैठक भी आहूत की, लेकिन अफसरों के देहरादून में ही रहने की वजह से इसका लोगों को कोई लाभ नहीं हुआ। यह फैसला दिखावे से अधिक कुछ साबित नहीं हुआ।
त्रिवेंद्र का खुद का व्यवहार भी लोगों की नाराजगी की बड़ी वजह था। वह कम बोलते थे, लेकिन एक ही वर्ग विशेष के लोगों को महत्व देने की वजह से लोगों के निशाने पर थे। इसकी वजह से मुख्यमंत्री की किसी भी आलोचना को ये लोग व्यक्तिगत रूप से लेकर बदले की भावना से काम करते थे। उन पर भ्रष्टाचार के अधिक आरोप तो नहीं थे, लेकिन एक मामले में हाईकोर्ट उन पर लगे आरोपों की जांच सीबीआई से कराने का आदेश दे चुका था। इस पर सुप्रीम कोर्ट स्टे दे चुका था, लेकिन 10 मार्च को इस सुनवाई होनी है। हाल ही में एक चैनल के सर्वे में त्रिवेंद्र देश के सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्री बताए गए थे और यह भी उनके खिलाफ गया।